गिरिजा स्तुति (मुख्यतः माता पार्वती की स्तुति)
जय जय गिरिवर राज किशोरी – भावार्थ (हिंदी में)
यह स्तुति माता गौरी की महिमा का गान है। तुलसीदास जी ने इसे रामचरितमानस में
(“श्री सीताराम“) विवाह प्रसंग के समय लिखा है। आइए, प्रत्येक पंक्ति का अर्थ समझते हैं।
पद १
जय -जय गिरिवर राज किशोरी।
हे गिरिराज हिमालय की पुत्री किशोरी (गौरी माता), आपकी जय हो, आपकी जय हो।
जय महेश मुख चन्द चकोरी।।
हे महेश्वर (शिवजी) के मुख रूपी चन्द्रमा की चकोरी (प्रिय), आपकी जय हो।
पद २
जय गजबदन षडाननमाता।
हे गजानन (गणेश) और षडानन (कार्तिकेय) की माता, आपकी जय हो।
जगत जननी दामिनी दुति गाता।।
आप जगत की जननी हैं, आपकी आभा बिजली की तरह जगमगाती है।
पद ३
नहिं तव आदि मध्य अवसाना।
आपका आदि, मध्य और अंत कोई नहीं जान सकता।
अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।।
आपके अनंत प्रभाव को वेद भी नहीं जान पाए हैं।
पद ४
भव भव विभव पराभव कारिनि।
आप संसार के उत्थान और पतन की कारण हैं।
विश्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।।
आप समस्त विश्व को मोहित करती हैं और अपने अधीन विचरण करती हैं।
दोहा
पति देवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
हे माता! देवताओं में भी प्रथम स्थान आपका है।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस् सारदा सेष।।
आपकी महिमा अनंत है, जिसे सहस्र सरस्वती और शेषजी भी नहीं कह सकते।
पद ५
सेवत तोहि सुलभ फल चारी।
जो आपकी सेवा करता है, उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – ये चार फल सहज ही मिलते हैं।
बरदायनी पुरारी पिआरी।।
आप वर देने वाली हैं और शिवजी (पुरारी) की प्रिय हैं।
पद ६
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे।
देवी! आपके चरणकमलों की पूजा करके,
सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।।
देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं।
पद ७
मोर मनोरथु जानहु नीकें।
मेरे मनोरथ को आप भली-भाँति जानती हैं।
बसहु सदा उर पुर सबहीं के।।
आप सबके हृदय रूपी नगर में सदा निवास करें।
पद ८
कीन्हेऊँ प्रगट न कारन तेहीं।
मैंने इसे प्रकट नहीं किया, उसी कारण।
अस कहि चरन गहे बैदेही।।
ऐसा कहकर सीता जी ने आपके चरण पकड़ लिए।
पद ९
बिनय प्रेम बस भई भवानी।
विनय और प्रेम से भवानी प्रसन्न हो गईं।
खसी माल मूरति मुसकानी।।
उनकी माला खिसक गई और मूर्ति मुस्कुराने लगी।
पद १०
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ।
सीता जी ने आदरपूर्वक प्रसाद को सिर पर धारण किया।
बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।।
गौरी माता हर्ष से भरकर बोलीं।
पद ११
सुनु सिय सत्य असीस हमारी।
सुनो सीता! यह हमारी सच्ची आशीष है।
पूजिहिं मनकामना तुम्हारी।।
तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी।
पद १२
नारद बचन सदा सुचि साचा।
नारद जी का वचन सदा शुद्ध और सत्य होता है।
सो बरू मिलिहि जाहिं मनु राचा।।
वही वर मिलेगा, जिस पर तुम्हारा मन रच गया है।
पद १३
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरू सहज सुंदर साँवरो।
जिस पर तुम्हारा मन रच गया है, वही सहज सुंदर सांवला वर मिलेगा।
करुना निधान सुजान सीलु सनेह जानत रावरो।।
वह करुणा का भंडार, सुजान, शीलवान और भक्तों के प्रेम को जानने वाला होगा।
पद १४
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
इस प्रकार गौरी का आशीर्वाद सुनकर सीता जी का हृदय प्रसन्न हुआ, जैसे भौंरे कमल पर प्रसन्न होते हैं।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि-पुनि मुदित मन मंदिर चली।।
तुलसीदास कहते हैं कि सीता जी ने बार-बार भवानी की पूजा की और प्रसन्न मन से मंदिर चलीं।
पद १५
जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाय कहि।
सीता जी ने जब जाना कि गौरी माता अनुकूल हैं, तो उनके हृदय का हर्ष कहा नहीं जा सकता।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे।।
उनके बाएँ अंग में शुभ संकेत होने लगे।
निष्कर्ष
यह स्तुति माता गौरी की महिमा का अद्भुत वर्णन करती है। इसे पढ़ने और सुनने से मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। राजन जी महाराज के अनुसार, इसका पाठ करने से दुर्गा सप्तशती के पाठ का फल प्राप्त होता है।













































































